Thursday, March 5, 2020

Editing and translations


https://researchmatters.in/hi/news/%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%82%E0%A4%B2%E0%A4%95-%E2%80%8B%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E2%80%8B%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%8A%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%9C%E0%A4%BE-%E0%A4%A6%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%8F%E0%A4%95-%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E2%80%8B-%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%95



https://www.stitcher.com/podcast/books-that-speak/e/57559039



https://researchmatters.in/hi/news/%E0%A4%A4%E0%A5%88%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%87-%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%8F-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%9F%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%87-%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%98%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%80


कार-रेलगाड़ी-बस-या-पैदल-मुंबई-निवासी-मॉल-तक-कैसे-जाना-पसंद-करते-हैं

https://researchmatters.in/hi/news/%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B2%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A5%9C%E0%A5%80-%E0%A4%AC%E0%A4%B8-%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%B2-%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A4%88-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80-%E0%A4%AE%E0%A5%89%E0%A4%B2-%E0%A4%A4%E0%A4%95-%E0%A4%95%E0%A5%88%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%BE-%E0%A4%AA%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%87-%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%82


घातक-कीटनाशक-कार्बारिल-का-जीवाणु-द्वारा-निवारण
https://researchmatters.in/hi/news/%E0%A4%98%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%95-%E0%A4%95%E0%A5%80%E0%A4%9F%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A4%95-%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B2-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%81-%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%BE-%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3




https://researchmatters.in/hi/news/%E0%A4%A4%E0%A5%88%E0%A4%B0%E0%A4%A4%E0%A5%87-%E0%A4%B9%E0%A5%81%E0%A4%8F-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%9F%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%9F%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%A1%E0%A4%BC%E0%A5%87-%E0%A4%96%E0%A4%BC%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%98%E0%A4%82%E0%A4%9F%E0%A5%80


Wednesday, March 16, 2016

क्या अत्यधिक दृश्य इनपुट्स (visual inputs ) बच्चों की रचनात्मकता को चोट पहुंचा रहे हैं ?


कुछ वर्ष पूर्व एक साहित्यिक समारोह (लिटरेरी  फेस्ट ) में भाग लेने का मौका मिला था। चर्चा इस बात पर हो रही थी कि आजकल बच्चों के उपयुक्त सही पुस्तकों की कमी है। कुछ बाल सहित्य मिल भी जाये तो माँ माता -पिता अपनी अपनी दिनचर्या में इतने व्यस्त हैं की बच्चों को बिठाकर कुछ पढ़कर सुनना तो दूर,उनके साथ बैठकर दो घड़ी समय बिताने का समय भी नहीं निकल पाते। जहाँ तक पारम्परिक और  पौराणिक  कथाओं का सवाल है उनपर आधारित सीरियल्स व डीवीडी आसानी से मिल जातें हैं। ऑनलाइन भी बहुत कुछ उपलब्ध हैं। बस बच्चों को टीवी या कंप्यूटर के सामने बिठा दो और देखने दो। साथ में खाने के लिए प्लेट में कुछ धर दो। बस बच्चा भी खुश और व्यस्त  और माता-पिता आराम से अपना अपना काम निपटा सकते हैं। 

अब यहाँ पर एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा उठाया गया। अपनी ही काल्पनिक दुनिया में मगन रहना बचपन का एक अभिन्न अंग है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी बच्चो के नैसर्गिक मानसिक विकास लिए यह  ज़रूरी माना जाता है। अत्यधिक दृश्य इनपुट्स से  बच्चों की स्वाभाविक परिकल्पना की प्रवृत्ति में बाधा पड़ सकती है। 

एक उदाहरण  यह दिया गया कि मान लीजिये  हम कुछ बच्चों को बिठाकर एक कहानी सुनाते  है जिसमे किसी राक्षस ,भूत ,चुड़ैल या जिन्न का जिक्र करते हैं। इसे सुनते समय हर बच्चा अपने अपने मन में इस राक्षस या भूत की अलग अलग छवि की परिकल्पना करेगा। हर बच्चे के मन में अलग सोच होगी। लेकिन अगर किसी फेयरी टेल की डीवीडी दिखाएंगे तो उसमे चुड़ैल एक निश्चित रूप (चित्रकार  की कल्पनानुसार ) में दिखाई देगा  और सारे बच्चे इसी रूप को आत्मसात कर लेंगे। आगे किसी और कहानी में भी जब चुड़ैल का जिक्र आएगा तो बच्चों के मन में  वही छवि सामने आएगी। अपनी सहज स्वाभाविक कल्पना की कोई गुंजाईश ही नहीं रहेगी ।

इस तरह से क्या हम बच्चों की कल्पना करने की प्रवृत्ति को धक्का तो नहीं पहुंचा नहीं रहे हैं?

इसीसे मुझे याद आया मेरे एक जर्मन साथी की बात जो उसने मुझे पैंतीस साल पहले कही थी। उसका कहना था कि बच्चों को कोई परिष्कृत खिलौना नहीं देना चाहिए। इससे उन की रचनात्मक प्रवृति पनपने नहीं पाती। अगर उसे एक बैटरी ऑपरेटेड एम्बुलेंस लेकर देंगे तो उसे कुछ और सोचने की गुंजाईश नहीं बचेगी।  बच्चे के हाथ बस एक खाली डिब्बा दे दीजिये। वह उसे लेकर घंटों गुजर देगा। कभी वह उसे कुर्सी बना लेगा तो कभी मेज ,कभी छोटे से घर की कल्पना  कर सकता है या धक्का देकर उसकी गाड़ी बना लेगा। सैकड़ो विकल्प निकाल  सकता है जिसकी हम वयस्क कल्पना तक नहीं कर सकते। पर एक बार खिलौना एम्बुलेंस बन गया तो बस आगे कोई स्कोप ही नहीं रहा। कई लोगों का अनुभव कहता है कि कितने भी खिलोने ले दो पर उनके बच्चों का घर की रोज़मर्रा की वस्तुएं जैसे रसोई  के बर्तन,झाड़ू ,तकिया वगैरह ने सबसे ज़्यादा मनोरंजन किया है?।

आप का क्या विचार है ?











Saturday, March 5, 2016

हमारी मानव जाति

    


 मुझे कुछ न कुछ पढ़ते रहने का शौक  है।  पिछले कुछ दशकों से पढ़ने की रुचि फिक्शन (कथा साहित्य  ) से हटकर नॉन फिक्शन (कथेतर ) पुस्तकों  की तरफ मुड़ गयी/गई है। 

  अकसर लोगों का पढ़ने का दायरा सीमित ही रहता है. लोग एक ही प्रकार की पुस्तकें  जैसे सामाजिक या राजनीतिक या रोमांटिक पुस्तकें पढ़ते रहते हैं. इसमें कोई बुराई नहीं है. आखिर सबको अपनी अपनी पसंदकी पुस्तकें पढ़ने का पूरा अधिकार  है. मगर मैंने कहीं पढ़ा था हर एक को कभी कभीएकदमअलगविषयकी पुस्तक पढ़ लेनी चाहिए. इससे आपको एक नए आयाम की अनुभूति होगी और आपकी सोच का दायरा भी बढ़ेगा।और अगर आपको लिखने का शौक हो तब तो यह आपके लिए और भी अच्छा है। 

इसी सोच के तहत जब पक्षियों  के बारे में लिखी अंग्रेजीकी एक किताब मेरे हाथ लगी तो मैंने उसे  पढ़ने की ठान ली.पढ़कर पक्षियों  के बारे में तो अच्छीजानकारी तो मिली ही पर पुस्तक  की प्रस्तावना में  मुझे एक नई ​व बहुत महत्त्वपूर्ण बात जानने को मिली जो मैं यहाँ आपको बताना चाहता हूँ। 

यह तो सर्वविदित है कि हमारी पूरी पृथ्वी एक इकोलॉजिकल सिस्टम (पारिस्थितिक तंत्र ) में बंधी हुई है जिसमे सारी सजीव वस्तुएं एक दुसरे पर पर निर्भर हैं. वनस्पति जगत,प्राणी जगत (जिसमे हम सब और जंतु जगत शामिल है),पक्षी जगत,कीड़े मकोड़ों का जगत सब एक दुसरे से जुड़े हुए हैं.जंतुओं व पक्षियों को घास,पत्तियाँ ,बीज और फल चाहिए. पशुपक्षी बीजों को दूर दूर  तक वितरित करके वनस्पति जगत की सहायता करते हैं। ये सारे आपस में जुड़े हुए हैं। इसके आलावा भूमि.समुद्र,नदियां,जंगल भी पारिस्थितिक तंत्र में एक अहम भूमिका निभाते हैं। 

ये सभी जगत एक दूसरे पर इस हद तक आश्रित हैं कि अगर किसी कारणवश इन में से कोई एक भी जगत नष्ट हो जाये तो पूरा संतुलन डगमगा जायेगा और दूसरे  जगत भी पनपने नहीं पाएंगे। शायद कुछ दशकों के बाद उनका नामोनिशान ही मिट जायेगा।

अब रही मानव जगत की बात। हम लोग भी पशुपक्षी व वनस्पति जगत पर काफी निर्भर हैं। अगर संपूर्ण मानव जाति नष्ट हो जाये तो अन्य जगतों पर कोई असर नहीं पड़ने वाला. बल्कि ये सारे ज़्यादा फलेंगे और फूलेंगे क्योंकि मानव हमेशा इनका नाश ही करता आया है। इनका ही नहीं ,मानव तो भूमि,हवा ,नदी,समुद्र और वन समूह का भी बहुत तेज़ी ध्वंस करता आया है। 


और अगर मानव को अभी भी समझ नहीं आई तो उसका विनाश निश्चित है. अब सवाल यह उठता है अगर मानव जाति इतनी उपयोगहीन और विनाशकारी  है तो किस बूते पर हम अपने को तीसमारखां समझते  है?


                                                    -------------------------------------------










        



Thursday, January 21, 2016

दास्तान-एक केक बनाने की

अभी पिछले ही महीने क्रिसमस के मौके पर करीब पच्चीस साल पहले  की  क्रिसमस की अनायास ही याद हो आयी.
हमारी श्रीमतीजी केक, बिस्कुट वगैरह बनाने का शौक  रखती हैं. पर केक खाना उतना पसंद नहीं है. मैंने कहा बस तुम केक बनाते रहो और मैं खाता  रहूँ तो जीने का मज़ा कुछ और आएगा. खैर ,उस साल यह तय रहा की प्लम केक जो क्रिसमस पर विशेष रूप से बनाने की प्रथा है ,बनेगा।
पर यहाँ एक बहुत बड़ी दिक्कत सामने आई.इस केक में 'रम ' पड़ता है. वैसे रम के एसेंस से भी काम चलाया जा सकता है पर असली चीज़ का मज़ा ही कुछ और है। अब हम जैसे तथा कथित सुसंस्कृत परिवार में शराब का नाम लेना भी वर्जित था. तो अब रम कौन, कैसे और  कहाँ से लाये ? बड़ी गंभीर समस्या थी.
कोई भी उलटा सीधा काम हो तो अपने सर ही आता है तो लाना तो मुझे ही था. किसी बाहरी व्यक्ति की सहायता का जोखिम उठाने का सवाल ही नहीं था. 
आजकल शराब तो धड़ल्ले  से कोने कोने में मिल जाती है. चाहे आटा ,चावल या दूध बगल की दुकान में न मिले पर दारू के दुकानों की कमी  नहीं ,एक ढूंढो  हज़ार  मिल  जायेंगे. तो कहाँ से लाएं ,इसके कई विकल्प थे.
मगर असली मुश्किल यह थी कि  कैसे लाएं. पास  में ही एक दारू की दूकान और उससे लगा हुआ बार भी था. अब अगर मेरी तरह एक 'संभ्रांत ' (आखिर बन्दा भारतीय सरकार के एक उन्नत  उपक्रम में उच्च पदाधिकारी था) व्यक्ति बार के आसपास पाया गया तो हमारी कॉलोनी में तहलका मच जायेगा. में अभी इसी कश्मकश में में ग्रस्त था की हमारी सुपुत्री ने फरमान जारी किया कि आप किसी भी कीमत पर बार में नहीं जायेंगे .अब हमने पूछा भई  तुमको क्या परेशानी है.?उसने फ़रमाया कि अगर उसकी किसी सहपाठी ने मुझे वहां देख लिया तो अगले दिन स्कूल में ढिंढोरा पिट जायेगा की उसके पिताजी पियक्कड़ हैं.
बड़ी दुविधा थी. एक सलाह कहीं से आई कि मैं एक ऐसा हेलमेट, जो पूरा मुँह ढक ले, पहन कर जाऊँ  या डकैतों वाला मास्क पहन कर जाऊं. पर मुझे इस तरह फैंसी ड्रेस में जाना बिलकुल  नहीं जँचा।
मैंने प्लान बनाया कि अँधेरा होते  ही फटाफट जाकर ले आऊँ। जैसे तैसे हिम्मत करके बार में घुसा।काउंटर वाले ने मुझे इस घूर कर देखा और एकदम पहचान लिया क्यूंकि बगल  वाली  बेकरी में उसने मुझे कई बार देखा था.मुझे लगा, उसकी निगाहें कह रही हैं अच्छा तो आप भी। मैंने जल्दी से बिना उसकी तरफ देखे आर्डर दिया जल्दी से रम दे दो. उसने पूछा "क्या यहीं लेंगे". पहले तो मेरे समझ में नहींआया पर थोड़ी देर में दिमाग की  घंटी बजी. वह जानना चाहता था क्या मैं काउंटर पर खड़े खड़े ही रम चढ़ाना चाहता था. मैंने घबरा कर जल्दी से कहा नहीं भई जल्दी से एक बोतल पैक करदो. उसने शेल्फ से एक बोतल निकाल कर दिखाई और पूछा "क्या यह ठीक रहेगी?". मैंने लेबल को पढ़कर कहा नहीं भई ,हमारी श्रीमतीजी को सिर्फ ओल्ड मोंक ही चलेगी. सुनकर वह मुस्कुराया जैसे कह रहा हो "अच्छा तो मैडम भी शौक फरमाती हैं". उसने दूसरी बोतल निकाल  कर पैक की,मैंने काउंटर पर पैसे पटके और वहां से घर  को लपका.
घर पहुँच कर मैंने बड़े शान से पैकेट को श्रीमतीजी को थमाया। आखिर यह काम किसी मैदान मारने से काम तो नहीं था.
मगर यह क्या ! पैकेट खोलते ही श्रीमतीजी का चेहरा बुझ गया। मैंने घबरा कर पूछा क्यों सब ठीक तो है।
"यह तो छोटी साइज की बोतल है। इसमें मैं मनीप्लांट कैसे उगाऊँगी ?
लो करलो बात। एक तो हम सर पे कफ़न बांध कर तूफ़ान से कश्ती निकाल  कर लाये ,और यहाँ इन्हे मनीप्लांट की पड़ी है।





Tuesday, July 1, 2014

Hamari Hasti

जब भी मेरा प्रकृति के विशाल रूप से आमना सामना होता है तो एक अजीब सी अनुभूति होती है। जैसे विस्तृत नभ मंडल ,लहराता हुआ अथाह सागर ,गगनचुम्बी हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखला इत्यादि। ऐसे विस्तृत व विशाल दृश्य  को देखकर कुछ अनिर्वचनीय सी अनुभुति होती है। अचानक मुझे अपनी हस्ती ,अपनी समस्याएं बहुत तुच्छ मालूम पडने लगती हैं। अगर हम पूरे ब्रह्माण्ड की बात कारें तो हमारी तो दूर की बात है ,पूरी पृथ्वी की हस्ती ऐक बिंदु  से अधिक नहीँ है।
                 सम्पूर्ण मानव जाति ,पशु पक्क्षी ,पेड़ पौधे ,जीव जंतु ,कीड़े मकोड़े ,सारी  धरती एक सूत्र में बंधे हुए हैं। हम सब एक दूसरे  पर आत्म निर्भर हैं। इन सब में केवल मानव जाति को सोचने और समझने की क्षमता प्राप्त है  जिसे कि वो कई बार अपने स्वार्थ के लिए अनुचित रूप से ऊपयोग  करके प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ने में  लगा हुआ है. समस्त विश्व के देश हथियारों की होड़ में लगे  है , अवसर मिलते ही एक दूसरे पर उनका उपयोग करने के लिए तैयार बैठे हैं।